कवर्धा। कवर्धा जिला पंचायत चुनाव भाजपा की अजेय लय और भीतरघात की चुनौतीवर्धा जिले में जिला पंचायत चुनाव के पहले चरण में भाजपा ने अभूतपूर्व सफलता हासिल की, छह में से छह सीटें जीतकर अपनी सियासी ताकत का लोहा मनवा लिया। यह नतीजे न सिर्फ पार्टी के लिए मनोबल बढ़ाने वाले हैं, बल्कि प्रदेश की राजनीति में भाजपा के बढ़ते वर्चस्व की पुष्टि भी करते हैं। लेकिन इस चुनाव में दो सीटें ऐसी रहीं, जहां सिर्फ जीत ही नहीं, बल्कि भाजपा की आंतरिक राजनीति भी खुलकर सामने आई।
क्षेत्र क्रमांक 10: भाजपा के गढ़ की प्रतिष्ठा दांव पर
क्षेत्र क्रमांक 10 का चुनाव भाजपा के लिए सिर्फ एक सीट की लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह पार्टी की साख का सवाल बन चुका था। भाजपा प्रत्याशी कैलाश चंद्रवंशी की जीत को महज एक चुनावी सफलता मानना भूल होगी। यह सीट इसलिए भी महत्वपूर्ण थी क्योंकि कैलाश चंद्रवंशी उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा के करीबी माने जाते हैं और भगवा ध्वज कांड के बाद जेल तक जा चुके हैं। यह चुनाव भाजपा के गढ़ में उसकी ताकत की परीक्षा था, जिसे पार्टी ने पूरी ऊर्जा और संसाधनों के साथ लड़ा। नतीजा यह हुआ कि कैलाश चंद्रवंशी ने शानदार जीत दर्ज कर यह संदेश दे दिया कि भाजपा का यह गढ़ फिलहाल अडिग है।
क्षेत्र क्रमांक 11: त्रिकोणीय संघर्ष ने खोली अंदरूनी खींचतान की परतें
इस चुनाव में सबसे दिलचस्प मुकाबला क्षेत्र क्रमांक 11 में देखने को मिला। यहां भाजपा को न सिर्फ विपक्ष से, बल्कि अपनी ही पार्टी के भीतर मौजूद दिग्गजों से भी टकराना पड़ा। यह मुकाबला राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा, सामाजिक समीकरण और भीतरघात की जटिलताओं से भरा रहा।
पूर्व जनपद पंचायत अध्यक्ष इंद्राणी चंद्रवंशी के पति दिनेश चंद्रवंशी, पूर्व विधायक सियाराम साहू के बेटे वीरेंद्र साहू और पूर्व जिला पंचायत सदस्य रामकृष्ण साहू—तीनों ही भाजपा के प्रभावशाली चेहरे थे। लेकिन टिकट बंटवारे में उलझन ऐसी हुई कि पार्टी को किसी एक को अधिकृत करने की स्थिति में नहीं छोड़ा गया। परिणामस्वरूप, भाजपा की यह सीट भीतरघात और बगावत का अखाड़ा बन गई। अंततः वीरेंद्र साहू ने अपनी पकड़ मजबूत रखते हुए बाजी मार ली।
भाजपा की जीत और भविष्य की चुनौतियां
भले ही भाजपा ने सभी सीटें जीत ली हों, लेकिन क्षेत्र क्रमांक 11 में जिस तरह पार्टी के भीतर संघर्ष हुआ, वह पार्टी संगठन के लिए भविष्य में एक गंभीर चुनौती साबित हो सकता है। एक तरफ पार्टी को बाहरी विरोधियों से लड़ना है, तो दूसरी ओर उसे अपने ही गढ़ में भीतरघात से बचने के उपाय करने होंगे।
इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया कि भाजपा की मजबूत पकड़ अब भी बरकरार है, लेकिन आंतरिक समन्वय की चुनौती को हल्के में लेना पार्टी के लिए घातक हो सकता है। कवर्धा में मिली इस जीत को केवल सफलता का जश्न नहीं, बल्कि भविष्य की राजनीति का संकेत भी माना जाना चाहिए—जहां जीत सिर्फ विपक्ष पर नहीं, बल्कि संगठन के भीतर की जटिलताओं पर भी पाना जरूरी होगा।