छत्तीसगढ़ में प्रकृति और पशुधन का महापर्व ‘पोला’ आज धूमधाम से मनाया जाएगा। यह पर्व क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को प्रकट करता है और खेती-बाड़ी से जुड़ी परंपराओं को जीवित रखने का माध्यम है। पंडित हेमंत प्रसाद मिश्रा ने बताया कि छत्तीसगढ़वासियों ने अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोते हुए साल के विभिन्न अवसरों पर त्योहारों का आयोजन किया है। इनमें अक्ती, सवनाही, एतवारी, भोजली, हरियाली और अन्य धार्मिक आस्थाओं के अवसर शामिल हैं, जो जनमानस में एकता और सामूहिकता का संदेश देते हैं।
पोला के दिन, सुबह होते ही गृहिणियाँ विशेष पकवान बनाने में व्यस्त हो जाती हैं। गुडहा चीला, अनरसा, सोहारी, चौसेला, ठेठरी, खुरमी, बरा, मुरकू, भजिया, मूठिया, गुजिया और तसमई जैसे पारंपरिक व्यंजन तैयार किए जाते हैं। इस दिन का मुख्य आकर्षण बैलों की पूजा और शृंगार होता है। किसान गौमाता और बैलों को स्नान कराते हैं और उनके सींग और खुरों को रंग या पॉलिश से सजाते हैं। बैलों को गहनों और आभूषणों से सजाया जाता है, जिसमें घुंघरू, घंटी और कौड़ी से बने आभूषण शामिल होते हैं। पूजा के बाद, बेटों के लिए मिट्टी या लकड़ी के बैल खरीदकर खेल के लिए दिए जाते हैं।
चबेला के पंडित तामेश्वर प्रसाद तिवारी ने बताया कि इस दिन की विशेष पूजा और आयोजन से स्थानीय समुदाय की सांस्कृतिक पहचान मजबूत होती है और यह त्योहार क्षेत्र की धार्मिक आस्थाओं और परंपराओं को दर्शाता है। पोला पर्व से जुड़े इस उत्सव ने छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन में एक खास स्थान बना लिया है, जो लोक-संस्कृति के संरक्षण और प्रचार का प्रतीक है।